माँ

माँ

लेखनी बहुत लिखी,

प्रेम की भाषा भी थोड़ी बहुत सीखी,

लेकिन आज माँ की शिकायत सुनी,

सबके बारे में लिखती हो,

मुझे क्यूँ अपनी कविता में अपीरिचित रखती हो,

मैं मुस्काई,

थोड़ा शब्दों की गहराई में डुबकी लगाई,

फिर खाली हाथ ही लौट आई,

अब माँ को कैसे बताऊँ,

के तुम्हारे प्रेम की सीमा में तो,

गुम हो गयी सारी खुदाई,

तभी तो मैं नासमझ भी…

तुमसे जुड़े हर एहसास को ब्यान करने के लिए,

शब्द ही ना ढूँढ पाई…

कहाँ से शुरू करूँ, कहाँ ख़त्म,

तुम्ही से तो माँ, ये ज़िंदगी पाई,

ये परिचय, ये सपने, और कुछ अपने,

तुम्ही में नज़र आती है मुझे,

ईश्वर की परछाई…

वो दर्द जो तुमने सहे,

वो बलिदान जो तुमने दिए,

कोई विचार ही नहीं जिसमे तुम समा पाओ,

तुम जननी हो,

तुमसे तो आधार मैं पाऊँ…

मेरी हर खामोशी को भी,

तुम समझ जाती हो,

मेरी हर दुविधा का,

तुम हल बताती हो,

मेरी दोस्त बनकर,

मेरी दुनियाँ सजाती हो,

और जब मैं थक जाती हूँ जीवन के संघर्ष में,

तो तुम मेरी ताक़त बन जाती हो,

रंगो से मेरी ज़िंदगी भरकर,

शायद खुद बेरंग ही रह जाती हो,

मुझे सपने देकर नये,

मेरे जीवन को परिभाषित करती जाती हो..

हर उड़ान में, हर पहचान में,

मैं अंश तुम्हारा सजाती हूँ,

बस तुम्हारे प्रेम को ब्यान कर पाए जो,

वो शब्द नहीं ढूँढ पाती हूँ…

नासमझ, नादान, अबोध हूँ मैं,

तुमसे जो पाया, उस संसार में थोड़ा उलझी हूँ मैं,

कितना भी सफ़र तय कर लूँ लेकिन,

तुम्हारे आँचल में ही सुकून पाती हूँ मैं,

मेरी मंज़िल, मेरा किनारा,

मेरी आरजू और मेरा सहारा,

मेरी अनकही कहानी हो तुम,

जिसे मैं भी ना समझ पाऊँ कभी,

वो अबूझ पहेली हो तुम,

हर दिन सबकी परवाह करती,

अपने दर्द को किसी कोने में दफ़न करती,

अपने अस्तित्व में हम सब को पिरोए,

हमारी सांसो की रवानी हो तुम…

जिसे शब्दों में ब्यान नहीं कर सकते..

वो अमिट, अपरिमित, दास्तान हो तुम…

धरा सी सहनशक्ति लिए,

बादल सी छाया लिए,

इस प्रकृति की अनमोल निशानी हो तुम,

एक अनुपम उपहार खुदा का,

सबसे मजबूत आधार जीवन का,

मेरी हर कविता का,

यथार्थ हो तुम,

शब्दों का ऐसा कोई समंदर ही नहीं,

जिसके गर्भ से मैं तुम्हारे योग्य शब्द तराश लाऊँ…

ये जो कुछ भी हूँ मैं,

उसकी वजह हो तुम,

मेरे संसार की, मेरी पहचान की,

सबसे बड़ी हकदार हो तुम…

मेरी हर सांस में बहने वाले प्राणो की,

हर कविता, और कहानी की,

शुरुआत हो तुम…

बस मेरे पास वो शब्द नहीं,

जिनमे मैं तुम्हारे असीम प्रेम को समेट पाऊँ…

कोशिश भी करूँ तो आख़िर,

कौन से खजाने से मैं,

तुम्हारी परिभाषा ढूँढ लाऊँ..!

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5 Comments

  1. The analogy of mother to mother nature is unique ,apt and just.You have rightly verbalized the depth of mother’s role,care and love in a very potent manner.We cannot exist apart from our mother as we cannot payback her nine mother of bearing with any material riches.Gid bless you dear Jagriti

  2. wonderful.. the way you depict mother is commendable. Your words are so apt and they make me feel connected every time I read your work. dii keep writing and make us feel connected 🙂

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