अपनो की दुनिया में,
अंजान से रास्तों पे..
मंज़िल की तरफ बढ़ता मैं…
अनचाही परिस्थियों से,
लड़ता, उलझता..
सवालों के घेरे में,
कटघरे में खड़ा मैं…
समय से पहले…
अपने जीवन की परिभाषा को समझता..
कुछ खो जाने के डर से…
सब मोती एक माला मे पिरोता मैं…
और जो कभी खोया ही नही…
अपने उस अस्तित्व की तलाश करता मैं…
एक आज़ाद जीवन में…
पंछी सा उड़ता मैं…
और कहीं भीतर ही भीतर…
ज़ंजीरों से जकड़ा मैं…
उँचे आकाश में आशियाँ बनाने के ख्वाब लिए…
ज़मीन पे अपना छोटा सा घर…
अपनो की ही चोट से बचाता मैं…
जो आया नहीं अभी…
उस तूफान की आहट से थोड़ा सहमता..
कभी अपनो की तो कभी परायों की नज़रों से..
खुद को देखता मैं…
किसी को अपना समझ के…
दो कदम उसके साथ चल पड़ा था..
लेकिन एहसास हुआ देर से…
के हमेशा से अकेला ही था मैं…
थोड़ी उम्मीद अपनो से थी, थोड़ी शायद परयों से भी..
लेकिन बदलती दुनिया के रंगो में…
खुद को हमेशा सफेद चादर में ढकता मैं…
शायद कुछ दागों से बचने के लिए…
अपने अतीत की गहराईओं से…
थोड़ी सी हिम्मत बटोरता मैं…
एक सुनहरे भविश्य की तलाश में…
अपने आज को तबाह करता मैं…
किसी अपने की खुशी के लिए…
अपने गमों को दिल ही में रखता मैं…
जो आँधी एक दिन मुझे ही तबाह कर देगी आकर,
उसके आने से पहले, अपने सपनो को बुनता मैं…
थोड़ा सुकून हो जिस जहान में…
उस जहान की नीव रखता मैं…
सबकी खुशी में, खुद को खुश देखता मैं…
और अपने गम को, अकेले ही समेटता मैं…
एक बिखरे हुए सपने के दर्द में…
अपने सुनहरे कल की किस्मत लिखता मैं…
अनगिनत सवालों का जवाब देता…
और फिर अपने की जवाब में खो जाता…
आने वाले कल की विकट परिस्थियों को..
बदलने की कोशिश करता मैं…
कुछ खोने से पहले, सबके गमों को बाँटता मैं..
हर नकाब में छुपे, असली चेहरे को धीरे धीरे पहचानता मैं…
उम्मीदों के भंवर को…
थोड़ा समेट कर,
अपनी पहचान को टटोलता मैं..
अनगिनत सवालों के घेरे में..
अकेले ही कटघरे मे खड़ा मैं…
जिन ग़लतियों को अभी किया ही नहीं…
उनकी सज़ा भुगतता मैं…
अपनो की दुनिया में,
अंजान से रास्तों पे..
मंज़िल की तरफ बढ़ता मैं…
अपने अस्तितव की कहानी…
अपने ही लहू से लिखता मैं…