स्पंदन

मुक्त होते प्राणो में, जीवन का बंधन, विरक्त होती सांसो में, प्रेम का स्पंदन, हमेशा से अपूर्ण ही रह जाने वाली इस यात्रा में, पूर्ण हो जाने का अविलंबन, स्वयं को जाने बिना ही, संसार…

तस्सवुर

कुछ अज़ीज़ सी लगती है ये ज़िंदगी, जब तुम्हें क़रीब महसूस करती हूँ, अल्फ़ाज़ भी अब्तर से हो जाते हैं, जब तुमसे रु-ब-रु होती हूँ, आगोश में सिमट कर तुम्हारे, खुद को कुछ महफूज़ सा…

तुम होते तो…

सुबह की खिलखिलती धूप से लेकर, शाम की मीठी खामोशियों की अठखेलिया, भीगी पलकों पे सजे सपनो के मोती, होठों पर कुछ अफ़साने पुराने, चाहतों का एक कारवाँ, और कुछ अपने-बेगाने, हां, बेशक़ सब कुछ…

द्वंद

विचारों और मान्यताओं के द्वंद में उलझे, उस एक ही की तलाश में सब चले जा रहे हैं, कभी मन में, आत्मा के मंथन में, तो कभी मंदिर में, उस एक ही की पूजा किए…

ध्यान पीड़ा का या प्रभु का – प्रसंग

धरा पर जन्म लिया तो प्रभु से एक अनुपम उपहार पाया, अनेक क्षमताओं से परिपूर्ण यह नरतन पाया, धीरे धीरे दुनियाँ के झमेले में रमता गया, कुछ और, थोड़ा और पाने की लालसा में शरीर…

विरक्त

बंधन में बाँधु तुम्हे, या स्वयं ही मुक्त हो जाऊँ, उन्मुक्त सी होकर आकाश में उड़ूँ, और जीवन से मैं विरक्त हो जाऊँ, कुछ खोने और पाने की कशमकश से दूर, इस तन्हा सी भीड़…

बाबुल

बाबुल तुम्हारे पहलू में बैठकर एक ज़िंदगी और जी लेने को मन करता है.. तुम्हारे घर की दहलीज़ को छोड़ने से पहले, इस आँगन में फिर से खेलने को मन करता है.. माँ की लोरियाँ…

बंधन में ना बांधो मुझे

बंधन में ना बांधो मुझे, आज़ाद ही रहने दो.. धरा से दूर उस आकाश में, उन्मुक्त सा होकर उड़ने दो.. अभी अभी तो पंख फैलाना सीखा है मैने, थोड़ी लंबी उड़ान भरने दो, थक भी…

प्रतिबिंब

कभी कभी सोचती हूँ, मैं भी तुम जैसी हो जाऊँ… तुम्हारा प्रतिरूप ना सही, तुम्हारा प्रतिबिंब ही बन जाऊँ… निर्मोही तुम सी ना सही, तन्हा रास्तों पर चलना सीख जाऊँ, जब भी तड़फ़ उठे दिल…

निशब्द

ज़िंदगी की दहलीज़ पे, निशब्द सी खड़ी मैं, अपनी पहचान को तराशते हुए, कुछ अपनो के चेहरों पे, खोई मुस्कुराहट के मोती सजाए… चंद अरमानो की दास्तान, और कुछ उम्मीदों का काफिला पिरोए, हल्की सी…