प्रतिबिंब

प्रतिबिंब

कभी कभी सोचती हूँ,

मैं भी तुम जैसी हो जाऊँ…

तुम्हारा प्रतिरूप ना सही,

तुम्हारा प्रतिबिंब ही बन जाऊँ…

निर्मोही तुम सी ना सही,

तन्हा रास्तों पर चलना सीख जाऊँ,

जब भी तड़फ़ उठे दिल में,

बस बाँसुरी ही बजाऊँ…

खुद भी झूमूँ तुम्हारे प्रेम में,

और हर प्रेमी को नचाऊँ…|

दर्पण में खुद को निहारूं जो पल भर,

तुम्हारा ही अक्ष मैं सामने पाऊँ,

जो मुझे तुमसे मिला दे,

उसी राह पर मैं,

बेसूध सी होकर चलती जाऊं…

कभी कुछ खो दूं,

कभी तुम्हारे अंश में ही मैं पूर्ण हो जाऊँ,

तुम्हारा प्रतिरूप ना सही,

तुम्हारा प्रतिबिंब ही बन जाऊँ…|

अपनी पहचान को मैं,

तुम्हारे होने से परिभाषित कर पाऊँ,

और फिर दूसरे ही पल,

तुम्ही में अपना अस्तित्व भुलाकर,

मैं बेनाम सी हो जाऊँ…

जो मेरी आँखो मे तुम्हारे प्रेम के मोती सज़ा दे,

उस स्वपन को मैं सिंचती जाऊँ…

तुम्हारा प्रतिरूप ना सही,

तुम्हारा प्रतिबिंब ही बन जाऊँ…|

जो छोड़ गये हो मुझे यहाँ तन्हा,

तो इस सफ़र में भी मैं तुम्हे ही साथी बनाऊँ,

बेशॅक तुम मेरी आखों के सामने ना रहो,

पर मैं तुम्हारी ही परछाई बन जाऊँ…

हर लम्हा जो दिल में एक हुक सी उठती है,

उस दर्द के समंदर में,

तुम संग ही डूबकी लगाऊं…

तुम्हारा प्रतिरूप ना सही,

तुम्हारा प्रतिबिंब ही हो जाऊँ|

ज़रा तुम भी देखो,

किस हाल में हूँ मैं,

गम कोई भी नहीं,

लेकिन कुछ अधूरी सी हूँ मैं…

तुम आस पास ही रहते हो यूँ तो हर पल,

फिर भी तुम्हे जी भर के देख लेने को जी चाहता है,

महसूस तो हर साँस में करती हूँ तुम्हें,

फिर भी कुछ अनकहा सा रह जाता है…

प्रतिरूप तुम्हारा बनकर,

कहीं तुम सी ही निर्मोही ना बन जाऊँ,

प्रेम करूँ तो प्रेम की परिभाषा भी समझ पाऊँ,

ना चाह हो कोई, ना शिकायत रह जाए,

मैं अधूरी ही सही, पर ये कहानी तो पूरी हो जाए…

मेरा अस्तिताव तुम्ही में विलीन हो जाए,

तुम्हारी बाँसुरी में कभी तो,

मेरा भी नाम आए…

प्रतिरूप बनकर तुम्हारा कहीं जुदा ना हो जाऊँ…

प्रतिबिंब बनकर तुम्हारा, तुम्हीं में समा जाऊँ.

जब तक साँस चले मेरी, तब तक तुम मुझ में रहो,

जब साँस रुक जाए, तो मैं तुम्हारी हो जाऊँ..|||

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