विचारों और मान्यताओं के द्वंद में उलझे,
उस एक ही की तलाश में सब चले जा रहे हैं,
कभी मन में,
आत्मा के मंथन में,
तो कभी मंदिर में,
उस एक ही की पूजा किए जा रहे हैं,
द्वंद तो हमारी पहचान का है,
और कमी उसकी पहचान में खोजे जा रहे हैं!
ना आकार, ना निराकार,
ना पथर ना, ना मूरत,
एक एहसास ही तो है,
जिसमें उसे पा जाओगे,
ना तलाश होगी फिर किसी चौराहे की,
ना भीड़ की, ना तन्हाई की,
खुद को उसी का अंश तुम पाओगे!
शाश्वत कुछ भी नही यहाँ,
जीवन के हर अर्थ से अनर्थ निकल आता है,
तुम खोज रहे हो जिसे किसी और में,
वो तो खुद भीतर बैठे,
तुम्हारी खोज में भी आनंद लिए जा रहा है…
भटक रहे हो तुम दर-बदर,
इस मिट्टी के ढाँचे से जुड़कर,
अंतर मन से देखो,
तो सब दर्पण सा साफ़ नज़र आता है!
पानी सी अस्थिरता लिए,
खुद को बहाव से बचाने की कोशिश करते हो,
और देखो नाव जिसकी है,
उसी पे तुम संदेह करते हो…
जिसका कोई आस्तित्व नहीं,
उसके होने से अपनी पहचान बनाते हो,
और जो तुम्हे पूर्ण करता है,
उसे भीतर कहीं छिपाए बैठे हो!
धूँदला सा है यहाँ हर रास्ता,
मंज़िल भी कोई पाक नहीं,
तुम स्वार्थ के भावर् में हो,
शायद कोई परमार्थ नहीं,
अर्थ विहीन से जीवन में,
अपने होने का अर्थ तुम पाओगे,
खुद को स्थिर करके देखो,
फिर हर एक में उसे ही पाओगे!
ना श्वास कोई, ना विश्वाश कोई,
कुछ है ही नहीं शाश्वत यहाँ,
बस परमात्मा है,
एक आत्मा है,
और असीम प्रेम की दास्तान!
तुम चलो कभी भी,
राह कोई भी,
जाना तुम्हे वहीं ही है,
यात्रा तो ये किसी और की है,
तुम को बस चलते जाना है!
एक पल सुकून से,
थोड़ा जुनून से,
अपने भीतर तुम झाँको तो,
जो मिला नही अब तक बाहर,
वो भीतर ही पा जाओगे,
पर बाहर भीतर के इस भेद से शायद,
फिर भी ना निकल पाओगे,
छोड़ यहाँ इस द्वंद को जब,
थोड़ा सा मुक्त हो जाओगे,
फिर भूलकर अपने आस्तित्व को,
उसी मे विलीन हो जाओगे,
उस शाश्वत, सत्य, स्नातन में.
फिर तुम पूर्ण हो जाओगे.!!!
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