बिखरने दो मुझे

बिखरने दो मुझे यूँ ही कभी तन्हाई में,
मैं हर वक़्त ख़ुद को समेट कर नहीं रख सकती।
कभी ठहर कर कुछ पलों के लिए यूँ ही,
मुझे आँसुओं के कुछ क़तरों में बह जाने दो।
शायद मैं मिलूँ फिर मुस्कुराती हुई तुमसे,
उस बेनाम से साहिल की लहरों में ।
ज़िंदगी की कशमकश से, थोड़ा और रू-ब-रू हो लेने दो मुझे,
मैं भी चाहती हूँ इस दौर को थोड़ा क़रीब से समझना ।
आख़िर कौन से हिस्से में मेरा वजूद रहता है,
ज़रा ढूँढ लूँ मैं भी कभी थोड़ी फुर्सत में।
बिखरने दो मुझे यूँ ही कभी तन्हाई में,
मैं हर वक़्त ख़ुद को समेट कर नहीं रख सकती ।

थोड़ा उलझा ही रहने दो मुझे इस बेतरतीब-सी ज़िंदगी में,
शायद अभी वक़्त नहीं है मेरे पास सुलझने का।
अभी तो मैं लड़ रही हूँ कुछ बेड़ियों के बंधनों से,
जिनमें मेरे ख़्वाबों के पंछी क़ैद से नज़र आते हैं।
अभी सजने-सँवरने का मौक़ा ही कहाँ है,
बस अपने लहू से थोड़ा रंगीन बना रही हूँ,
इस बेरंग-सी पड़ी ज़िंदगी को।
तब तक तुम भी थोड़ा सब्र कर लो,
देखो ज़रा कैसे तराशी जाती है बेज़ुबान पत्थर से मूरत,
कैसे टूट कर जुड़ता है किसी का हौसला,
और फिर नई कहानियाँ किताबों में पनपती हैं किस्से बनकर।
अभी तो बिखरने दो मुझे यूँ ही तन्हाई में,
मैं हर वक़्त ख़ुद को समेट कर नहीं रख सकती।

मैं यूँ बेज़ार-सी, हमेशा तो नहीं रहूँगी यहाँ,
एक दिन मैं ख़ुद को तराश ही लूँगी,
कुछ मोतियों की माला पिरोकर,
जो मेरी आँखों से बहे हैं कभी,
तन्हाई में सुकून बनकर।
हाँ, थोड़ा वक़्त लगेगा अपने क़तरों को समेटने में,
लेकिन मैं थोड़ा सँवर कर ही लौटूँगी अब ।
मुझे भी अच्छा लगता है मुस्कुराते रहना,
हाँ, पर मैं हँसने के बहाने उधार नहीं लेती ।
तुम देखना रौनक मेरे चेहरे की,
मैं सुलझ कर लौटूँगी जब,
जब मिल जाऊँगी ख़ुद से और अपने अरमानों से मैं,
तब रंगत ही कुछ और होगी मेरी ज़िंदगी की ।
अभी तो बिखरने दो मुझे यूँ ही तन्हाई में,
मैं हर वक़्त ख़ुद को समेट कर नहीं रख सकती ।

अच्छा लगता है मुझे कभी-कभी यूँ बेतरतीब ही रहना,
मैं हर लम्हा ज़िंदगी को इतना सलीके में नहीं रख सकती।
मुझे बस तलाश है कुछ बिखरे पन्नों की,
जो ज़िंदगी की किताब को अधूरा कर जाते हैं।
लेकिन वो पन्ने न भी मिलें तो फ़िक्र नहीं,
क्योंकि नई कहानियाँ लिखना तो अब आदत-सी हो गई है।
मैं ख़ुद ही बना लूँगी नए रास्ते एक दिन,
अपनी उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए,
जहाँ जाने की तैयारी बहुत पहले ही कर ली है मैंने।
हो सकता है तुम देखो मेरे अक्स को यूँ बिखरा हुआ हमेशा,
और मेरी रूह को मैं समेट लूँ,
किसी जन्नत के सफ़र पर।
जहाँ जाने के लिए, रेत-सा बिखरना थोड़ा ज़रूरी-सा होता है,
और उस रेत का हवा के संग अपना रास्ता चुन लेना, लाज़मी-सा होता है।
मैं बस उस हवा के झोंके का ही तो इंतज़ार कर रही हूँ,
जो एक दिन ले जाएगा बहा कर मुझे,
उन ख़्वाबों के शहर में,
जिसके होने का तुम्हें कोई अंदाज़ा ही नहीं,
और जिसके होने पर मुझे कभी कोई शक ही नहीं।

लेकिन हाँ,
अभी तो बिखरने दो मुझे यूँ ही तन्हाई में,
मैं हर वक़्त ख़ुद को समेट कर नहीं रख सकती।

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