बंधन में बाँधु तुम्हे,
या स्वयं ही मुक्त हो जाऊँ,
उन्मुक्त सी होकर आकाश में उड़ूँ,
और जीवन से मैं विरक्त हो जाऊँ,
कुछ खोने और पाने की कशमकश से दूर,
इस तन्हा सी भीड़ में गुम हो जाऊँ,
ना तलाश हो किसी को मेरी,
ना ही मैं किसी को ढूढ़ना चाहूं…
मिट्टी से अपना नाता जोड़ूं,
आकाश के साए में पनाह मैं पाऊँ,
कभी कोई पूछे जो नाम मेरा,
तुम्हारी ही पहचान लिए मैं बेनाम हो जाऊँ…
तुम्हारे आगोश में सिमट कर,
तुम्हारे ही दिल में अपना घर बनाऊँ,
ना कोई पता हो मेरा,
बस मैं सबसे अंजान सी हो जाऊँ…
कभी रूठने का और फिर मनाने का,
ये सिलसिला ही ख़त्म हो जाए,
मैं लफ़ज़ो से हर रिश्ता तोड़ कर,
तुम्हारे एहसास से हर किस्सा पिरौऊँ,
बारिश की पहली बूँद सी मैं,
जब तड़फ़ कर तुम्हारी और चली आऊँ,
सागर सा अस्तित्व लिए तुम,
मुझे बाहों में समेट लो,
मैं खोकर पहचान अपनी,
तुम्हारा ही एक अंश बन जाऊँ,
जहाँ से ये यात्रा शुरू हुई थी,
वहीं मैं वापिस तुम से मिल जाऊँ…
छोड़ कर इस भीड़ में तन्हा मुझे,
ना जाने कौन सा खेल खेलते हो,
कभी मेरे हृदय में एहसास की तरह,
तो कभी एक सपना बनकर मुझसे मिलते हो,
हर बंधन में बाँधकर मुझे,
कैसे तुम यूँ मुक्त से होकर मेरी स्वास में बहते हो,
जीवन और मृत्यु के बीच,
परम आनंद को परिभाषित करते हो,
जिस मिट्टी के ढाँचे से मेरा कोई नाता ही नहीं,
उसे मेरी पहचान कहते हो,
और स्वयं मेरा हाथ थामकर,
इस अपूर्ण सी काया को, पूर्ण करते हो,
फिर तुम ही कहो…
बंधन में बाँधु तुम्हे,
या स्वयं ही मुक्त हो जाऊँ,
उन्मुक्त सी होकर आकाश में उड़ूँ,
और जीवन से मैं विरक्त हो जाऊँ…!
Philosophical…….
Alchemy