धरा पर जन्म लिया तो प्रभु से एक अनुपम उपहार पाया,
अनेक क्षमताओं से परिपूर्ण यह नरतन पाया,
धीरे धीरे दुनियाँ के झमेले में रमता गया,
कुछ और, थोड़ा और पाने की लालसा में शरीर का दोहन करता गया,
फिर एक क्षण में, पीड़ा ने अपना कहर बरपाया,
मैने अपने स्वार्थ में जितना इस तन से लिया,
उतना ही इसने अब पीड़ा के रूप में लौटाया,
चंद दिनों में खुशियों पर जैसे ताला लगता नज़र आया,
अब इस निर्मल काया का, क्रूर रूप सामने आया,
खाट पकड़ कर अब शरीर ने अपना हुकुम चलाया,
जो दौड़ा रहता था मन यहाँ वहाँ… अब वो पीड़ा में रमता नज़र आया,
जागूं पीड़ा,
सौउँ पीड़ा,
उठ बैठूं या दौड़ुँ.. पीड़ा..
अब पीड़ा के सिवा ना कुछ ध्यान आया,
खाना पीना सब छूट गया,
हर पल के काम से नाता टूट गया,
अब तो बस पीड़ा का पैगाम आया,
जीवन पर जैसे दुख का साया छाया…
ना नींद रही ना सुकून पल भर आया,
हर पल बस पीड़ा का ही ध्यान आया…
स्वास स्वास में पीड़ा पीड़ा करता…
मन अब बड़ा बैचैन हो आया,
पीड़ा का ध्यान करता शरीर और मन, पीड़ा का ही हो आया…
ना मुक्त रहा, ना वीरक्त रहा,
अब संसार से भी ना कोई आस रख पाया,
आँखो में आँसू लेकर,
बुद्धि का सब खेल चौपट होता नज़र आया…
एक दिन दर्द यूँ बढ़ा के, खाट से भी ना उठ पाया,
फिर थक-हार कर, एक ही नाम ज़ुबान पर आया,
“हे कृष्णा चले आओ”, मैं भी ज़ोर से चिल्लाया,
और देखो क्या माया हुई,
पल भर में प्रभु को करीब पाया,
हाथ बढ़ा कर उन्होने मुझे,
पल भर में खाट से उठाया,
उस दिन मुझ पगले से प्राणी का,
हर काम उनके हाथों होता नज़र आया,
सुध-बुध खोकर मैने जो पल भर, प्रभु के चरनो में ध्यान लगाया,
उनकी आँखो से बहता एक मोती मेरे हाथों में चला आया,
उस क्षण मुझे ये ध्यान आया, .
पीड़ा पीड़ा करता मैं, पीड़ा का ही हो आया,
मेरे प्रभु को मेरे दुख में दुखी देखा तो,
उन आँसुओं को थाम लेने का विचार आया,
और क्षण भर मे मेरा मन भाव विभोर होकर चिल्लाया,
“मेरे प्रभु, इस पीड़ा मैं भी मैने आनंद पाया…”
उनके होने का, आज मैने एहसास पाया…
मुझ तुच्छ प्राणी के दुख में कैसे प्रभु ने भी दुख पाया,
मैं रोया दो पल तो, प्रभु ने मेरा हर कष्ट अपनाया,
अब मैने भी अंजाने में प्रभु से सवाल किया,
“प्रभु कैसे इस पीड़ा ने तुम्हारा ध्यान भुलाया,
मैने पीड़ा का ध्यान किया तो मैं पीड़ा का हो आया..”
अब प्रभु भी थोड़ा मुस्काये,
मेरे थोड़ा करीब आए,
मेरे सर पर हाथ रखकर वो अब,
जीवन का भेद यूँ कह आए,
“तुम ध्यान करो मेरा, तुम्हारी पीड़ा का ध्यान मैं कर लूँगा,
तुम रम जाओ मुझमे, हर दुख मैं फिर हर लूँगा”..
पल भर में बात समझ आई,
एक प्रीत की लगन उभर आई,
मैं कृष्णा कृष्णा करता नाचा,
और हर पीड़ा से मुक्ति पाई,
जो ध्यान प्रभु का लगाने लगा,
जीवन को सुंदर बनाने लगा,
अब मुक्ति क्या, और बंधन भी क्या,
सब प्रभुमय ही हो जाने लगा,
एक अरसे बाद, बात पाते की समझ आई,
मैं ध्यान प्रभु का करने लगा तो, हर पीड़ा से मुक्ति पाई…
जन्म जन्म के दुख की कश्ती,
अब आनंद से मैं सज़ा आया,
मैने प्रभु का ध्यान किया तो प्रभु का ही मैं हो आया..
जीवन मृत्यु और पीड़ा के भय का,
भेद भी अब खुल पाया,
मैने प्रभु का ध्यान किया तो…
प्रभु का ही मैं हो आया..!
Very enlightening poem, reflecting the basis of our grief in getting detached from almighty. I strongly believe God is our eternal refugee, our benefactor, out true father who knows what is best for our soul. The only point is we should have faith and trust in his EXISTENCE. He is omnipresent, omniscient and omnipresent…the moment of this realization makes us peaceful and content. The pandemic has engulfed us and made our bodies vulnerable,but His infinite blessings ,his abundance of their various wonders of life can make our spirit and soul inviolate and invincible to any worldly pain. God bless all…
Thank you so much for such beautiful and enlightening words Mam.. We can feel the presence of God every moment when we are truly in Love with Him..
KEEP UPDATING DEAR!
Nishabbd…….
your words are so so relatable 🙂 🙂 keep that spark alive in your soul always <3
Thanks a lot dear…