बाग़ी

बाग़ी

ज़िंदगी की कश्मकश में थोड़ा और उलझना चाहती हूँ,

भीड़ का हिस्सा बनने से पहले, मैं बाग़ी होना चाहती हूँ,

सब पा लिया हो जिस ज़िंदगी में उसका फलसफा ही क्या होगा,

मैं सब कुछ खोकर एक दफ़ा फकीर होना चाहती हूँ,

पहचान बने किसी रुतबे से, उस से पहले,

मैं बेनाम होकर थोड़ा बिखरना चाहती हूँ…

ना कोई बंदिश हो जिसके रास्ते पे,

मैं उस मंज़िल की तलाश में निकलना चाहती हूँ…

थोड़ा टूट कर, थोड़ा संभल कर,

अपनी किस्मत, अपने ज़ज़्बे से लिखना चाहती हूँ…

ज़िंदगी की कश्मकश में थोड़ा और उलझना चाहती हूँ,

भीड़ का हिस्सा बनने से पहले, मैं बाग़ी होना चाहती हूँ..|

कुछ पाने की उम्मीद नहीं,

कुछ खोने का डर भी नहीं,

जब कुछ मेरा है ही नहीं,

तो कुछ ना होने की फिकर भी नहीं,

जो एहसास दिल में कहीं पिरोए हैं,

उनके सहारे से,

एक नयी रोशनी की तलाश में,

मैं कुछ अंधेरे करीब से महसूस करना चाहती हूँ…

गुम हो कर यूँ ही किसी काफिले में इस राह पे,

मैं किसी और रंग में खुद को रंगना चाहती हूँ…

ज़िंदगी की कश्मकश में थोड़ा और उलझना चाहती हूँ,

भीड़ का हिस्सा बनने से पहले, मैं बाग़ी होना चाहती हूँ..|

जिस राह की मंज़िल पे, सुनेहरे मोती हज़ार मिलेंगे,

उस से मेरा नाता ही क्या होगा,

जिसे परवाह नहीं अपने अस्तित्व की,

उस पंछी को भला आसमान की उँचाई से क्या,

किसी अनकही सी कहानी का किरदार बनकर,

दर-बदर भटकती एक बंजारन बनकर,

अपनी पहचान को मिट्टी में दफ़नाकर,

अंजान सी प्रेरणा की साक्षी बनकर,

एक लंबे रास्ते पर चलना चाहती हूँ,

जहाँ पर खुद को भूल जाऊँ हमेशा के लिए,

उस मंज़िल तक पहुँचना चाहती हूँ…

ज़िंदगी की कश्मकश में थोड़ा और उलझना चाहती हूँ,

भीड़ का हिस्सा बनने से पहले, मैं बाग़ी होना चाहती हूँ..|

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6 Comments

  1. Another masterpiece reflecting your spirit of self exploration and self analysis.Keep.inspiring and growing always.God bless you always!

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